खिड़की के सामने तकती थी ढलते सूरज की रोशनी ,
उसकी झलक का धीरे-धीरे निशा में परिवर्तित होना ,
शायद उसी तरह तुम्हारा होले से चले जाना !
खिली बहार ए बसंत की फिर आना पतझड़ का ,
याद दिला रहा है मुझे तुम्हारे वचन की उम्र और अवस्था ,
बदलते मौसम की तरह रुख बदलते वादे !
कच्ची दीवारों का रंग बारिश आते ही धूल गया ,
वैसे जैसे तुम्हारा मुझ पर से मुंह और आकर्षण ,
थोड़ा थोड़ा कम थोड़ा अदृश्य होते गया !
फूलों से प्रेम करते हैं लोग तब तक जब सुख न जाए ,
फिर घुल जाता पानी में या फिर गिरता जमीन पर ,
बिल्कुल प्रेम की तरह !
हो जाता खत्म है या फिर
धीमी गति से हो जाता वह लुप्त है ;
बस रहता नहीं जीवन भर !!!
-Urmi❤️