#साङ़ी #
पहले पहल
जिस दिन साङ़ी पहनी
उस दिन
मुझे मिली थी इजाजत
सपने देखने की....।
किसी अनजान शख्स के
नाम की मोहर
लग चुकी थी मुझ पर
अंगुली में पहना दी गई थी
एक सोने की अंगूठी।
अगली बार
माँ ने पहनाई थी साङ़ी
और धर दिया था
माथे पर पल्लू
पता नहीं
आशीषें ज्यादा थी
या कि ज्यादा थी समझाइश।
आँसुओं और थरथराते होठों के बीच
साङी का पल्लू संभालते हाथ
कब चुल्हा , चौका , बासन
संभालने लगे पता ही नहीं चला।
अब वार्डरोब में
सजी है
अनगिनत साङियाँ
हर साङ़ी के पीछे है
एक मीठी सी कहानी।
कभी कोख खुलने पर
मिली थी पीले की साङ़ी
बेटे की शादी में
भाई ने ओढाई
लाल चुनरी।
आज मेरी साङ़ी की
हर सलवट में
महकते रहते हैं
संस्कृति ,संस्कार , सपने....।
ये सिर्फ श्रृंगार नहीं है मेरा
कभी प्रेम का
कभी आशीर्वाद का
कभी मन्नत का
कभी पद्दोन्नति का
उपहार भी है
साङ़ी मुझसे है या
मैं साङ़ी से
नहीं जानती
नहीं जानती
नहीं जानती।
डॉ पूनम गुजरानी