चाहती हूँ अब ये बेड़ियां तोड़कर निकलूं बाहर,
इस अदृश्य पिंजरे से..
अपनी एक दुनियां बनाऊं,
अपनी नई राह बनाऊं..
गिरुं, संभलूं, ठहरू कहीं,
जहां वंश से ज्यादा,
वंशिका के आने की खुशी हो..
जहां नारी के लिए अलग नियम ना हो..
नारी , सम्मान और प्रेम की परिभाषा एक हो..
जहां मेरी गलती पर, मुझे समझें, समझाएं,
ठोकर लगे तो सब प्यार से उठाए..
हार जाऊं तो सब हौसला बढ़ाएं,
आजाद घूम सकुं मैं सुनसान गलियारों में,
कटाक्ष ना करे मेरे लड़की होने पर..
वरन् होशला दें मेरे हिम्मती होने पर..
शादी से ज्यादा मेरी खुशी का महत्व हो..
दहेज से ज्यादा मेरी शिक्षा पर खर्च हो.
शादी ना करूं तो कोई ताना ना दे,
ज़िन्दगी भर यूं उलहना ना दे,
बेशक मैं तब समाज की नजरों में बर्बाद हुंगी..
पर शायद तब मैं सही मायनों में आजाद हुंगी..