स्त्री ही स्त्री की आत्मीय सखी
तुम स्नेहमयी,
तुम संजीवनी,
सखा तुम ही, क्षमा तुम ही,
तुम उदारता, तुम प्रचंडता,
तेरा है हर रूप नवीन
तुझसे ही है जीवन रंगीन,
वसुधा को दिया है सुन्दरता,
तुझ से ही इसकी निरंतरता,
हौसला बनी कभी तुम,
कभी अभेद्य ढाल बनी,
हर पथ, हर पल में तुम
सहयात्री औ' राजदार बनी।
दिया है तूने धरा को
जीवन के सुंदर ढंग,
सहयोगिनी बनकर तुमने
भरा अनेकों विविध रंग।
स्त्री तेरे कितने रूप,
है कितना निस्वार्थ स्वरूप,
जाना तुमसे हर बार यही
स्त्री ही स्त्री की आत्मीय सखि।