🌾जय किसान 🌾
कुछ लोग
दिखते नहीं हैं अक्सर ,
हमारे शहरों की चकाचौंध
गायब कर देती है उन्हें ,
हमारी उन नाजुक आँखों से
चढ़ा रहता है
धूप का डिजाइनिर चश्मा
जिन पर !
अपनी अनगिनत जरूरतों के पीछे भागते हुए
रुक कर सोचना कभी ,
जिंदा रहने के लिए ,
दो रोटी से अधिक जरूरी है क्या ,
कुछ और भी ?
इस शस्य श्यामला धरती को
छूती है किसान की मेहनत ,
जितनी बार,
वह उड़ेल देती है उतनी ही बार
अन्न के दानों में भर कर
अपना स्वाद,
अपना प्यार !
उसकी मेहनत को भूल,
उस अन्न से हम
बढ़िया पकवान बनाते हैं
भर पेट भोग लगाते हैं
और चल देते हैं बनाने
आकाश से ऊँचे
सपनों के महल
भरी हों जिनमें
हमारी ख़्वाहिशों की चहल पहल !
फिर कौन करता है परवाह ,
उसकी,
जो जीता आया है ज़िदंगी
बेबस, बेहाल
सालों -साल ?
कौन सोचता है
'क्या कभी धनिया बना पाई
होरी को खिलाने के लिए
उसका कुछ मनपसंद ?
उसके चूल्हे में भी जली क्या आग
या वा दोनों भूखे पेट ही
नींद में रहे हैं जाग ???'
धरती ने दी जिसे
अपने आँचल की छाँव
क्या कांटो पर ही चलते रहेंगे
उसके खुरदरे पाँव?
क्यूँ करनी पड़ती है
एक किसान को शहर जा कर ,
किसी दूसरे की मजदूरी ,
क्यूँ बना लेता है वो
अपने गाँव के पीपल से
मीलों की दूरी ?
क्यूँ ना आज हम कुछ अलग सोचें,
कुछ नया विचारें !
अपने शाही बंगलों से बाहर निकल कर
कुछ दूर चल कर
उसका भी आँगन बुहारें
उसे भी उसके नाम से पुकारें !
सुलझाएं उसकी उलझनों के धागे
जिस दलदल में फंसी है उसकी बैलगाड़ी ,
सदियों से ,
उसे मिल कर ऐसा धक्का लगाएँ
कि वह निकल जाए आगे,
सबसे आगे !
क्यूँ ना दें उसे जरा सा सहारा,
खोल दें उसकी खुशहाली का वह दरवाजा,
जो वह नहीं खोल पाया है
आज तक ,
वह अपने भाग्य को कोसता रहेगा
कब तक,
आखिर कब तक ?
:नीलम वर्मा 💎