*साँस फुला कर*
यही गंध मैं चाहा था
यही अग्निबीज बोया था
यही धुआँ मैं ढूढ़ा था
बारूदी छर्रे से फटी माटी की सुगंध
अपने नथनों में भर कर
जीवन को मैं सोंधा था।
इस माटी की सुगंध अद्भुत और न्यारी है
माटी के गंध की तृप्ति
तृप्ति की सृष्टि से सचमुच
मोह,घृणा, और दीनता की भावना नही रही
ओछी नियत कभी पास न भटकी
कभी न कांटों सी खटकी
यही मेरी अभिलाषा थी
परिश्रम में ही मुझे अपनी
ख़ासियत मालूम हुई थी
कठिनाई ख़ास सी लगी थी
शौरव-जीवन द्रव्यों सा अभिनय
मैं क़दम क़दम पर
साँस फुलाकर निरंतर हवा भरता हूँ।
रचनाकार:-शिव भरोस तिवारी 'हमदर्द'