नैनों को तुरंत पढ़ लें..!
ऐसी दिव्य चक्षु कहा मिलें..?
अश्रु को स्वर्ण बना लें..!
ऐसा यथार्थ स्नेह कहा मिलें..?
होठों को तुरंत समझ लें..!
ऐसा निर्मल मन कहा मिलें..?
श्वासों को शीघ्र जान लें..!
ऐसी शुद्ध हवा कहा मिलें..?
अंग को नित्य हर्ष लें..!
ऐसा उत्तम स्पर्श कहा मिलें..?
हृदय को निस्वार्थ स्पर्श लें..!
ऐसी निच्छल प्रीत कहा मिलें..?
-© शेखर खराड़ी ( ३०/११/२०२०)