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┈┉┅━❀꧁ω❍ω꧂❀━┅┉
मन नहीं करता लिखने को
फिर भी मैं लिखता हूँ।
मैं नहीं जानता खेल खेलना,
न अपने से न ही अपनों से
मैं नहीं जानता शह देना,
हर बार मात ही खाता हूँ,
फिर भी मैं लिखता हूँ।।
बिना कारण, बिना भाव,
खाली-पीली हल्का सा...।
मैं कोई लेखक नहीं हूँ,
बस तन्हा इन्सान हूँ,
तन्हाई दूर करने को..
फिर भी मैं लिखता हूँ।।
न कोई रंग, न मन में उमंग..
ज़िन्दगी भी तो छिपते
सूरज सी हो गयी है,
मैं कर्म असफल करता हूँ,
फिर भी मैं लिखता हूँ।।
हँसता हूँ, मैं हँसाता भी हूँ,
खुद के गम छुपाता भी हूँ,
पाषाण नहीं इन्सान हूँ मैं,
रोता भी हूँ मुस्काता भी हूँ,
फिर भी मैं लिखता हूँ।।
मेरे लिए खुशियाँ तो जैसे
परछाई सी हैं, गुरु!
दो कदम बढ़ाता उन्हें पाने को,
उतनी ही और आगे पाता हूँ,
फिर भी मैं लिखता हूँ।।
कभी-कभी लगता है पा गया
मैं खुशियाँ बहुत सी..
फिर मैं उनको मुट्ठी में भरी
बालू रेत सा रिसता हुआ पाता हूँ,
फिर भी मैं लिखता हूँ।।
खालीपन दूर करना चाहता हूँ,
इधर-उधर निगाहें दौड़ाता हूँ,
फिर खुद को अकेला ही पाता हूँ,
मैं खुद को समझ जाता हूँ,
तभी तो मैं लिखता हूँ, गुरु!
तभी तो मैं लिखता हूँ।।
'समाप्त'
✍️ परमानन्द 'प्रेम' NHR 💞
*꧁༒राम -:- राम༒꧂*
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