एक अक्षर काला हूँ,
असंख्य जज्बातों को पाला हूँ।
मन तरंगों की भीषण क्रीड़ा का परिणाम हूँ,
भावनाएं समेटे अपने अंदर तमाम हूँ,
नही मानता, मैं गुलफ़ाम हूँ,
मैं तो अदना सा अक्षर इक आम हूँ।
मैं तभी तक व्यर्थ हूँ,
जब तक न निकलूँ मस्तिष्क की तरंगों से,
मेरे प्यारी कलम के नाजुक अंगों से
खुद तो मैं सोचने में असमर्थ हूँ,
पर एक बार जो लिखा जाऊं
तो दूसरों की सोच बदलने में समर्थ हूँ।
न लिख पाते तुम गीता- कुरान, ख़ैर
न दे पाते मस्जिद में अजान, मेरे बगैर
न भेज पाते प्रेम पत्र प्रिये को,
न जला पाते, ज्ञान चक्षु के दिए को,
न लिख पाते इतिहास मानव जाति का,
न कर पाते काम भाति- भाति का ।
मानो तो भीषण ज्वाला हूँ,
न मानो, तो फिर अक्षर इक काला हूँ।
#सावधान