मजदूर
पटरी पर अपने सपनों को
आँखों में ले कर सोये थे
जाने कब घर पहुंचेगे
ये सोच कर वो कुछ रोये थे
उनकी मंजिल उनका घर था
नहीं चांद पे उनको जाना था
कैसी ईश्वर की नियति है
उनको अपने पास बुलाना था
रात को कुछ खाया था
कुछ सुबह के लिए बचाया था
धरी रह गई वो रोटियाँ
जिसने अपना घर छुड़ाया था
उनके सपने रहे अधूरे
रह गया बस एक अफ़साना था
दम तोड़ दिया उस पटरी पर
जिसे बिछोना बनाया था
दिल दहल गया आज सभी का
चाहे वो अपना या पराया था
पेट पालने की चाहत नें
क्यू इतनी दूर भगाया था।