#देह_की_दहलीज_पर
क्यों और कैसे दिल के रिश्ते देह की दहलीज़ पर आकर दरकने लगते हैं? जानने के लिए आज शाम छः बजे मातृभारती पोर्टल पर पढ़िए उपन्यास की दसवीं कड़ी....!
इतने दिनों से जब्त भावनाएँ जब बाँध तोड़कर उमड़ी, तो उसमें अतृप्ति, आक्रोश, शक और अपनी उपेक्षा से उपजे तनाव के साथ उसके आँसू भी शामिल हो गए। उसे होश नहीं रहा कि कब उनका प्यार और आपसी समझ इन शब्दबाणों से घायल हो पीछे दुबक गए और गुस्से, क्षोभ और शर्म की आवाज़ें दरवाजे की सीमा से बाहर निकल गईं। कामिनी हतप्रभ थी, उसने खुद को इतना असहाय कभी महसूस नहीं किया था... पति के किसी और के साथ होने की कल्पना मात्र से वह बेचैन थी। शक जब तक मन में हो, खुद को व्यथित करता है, जब जाहिर हो जाता है, तो खुद का यकीन बनकर दूसरे को व्यथित करता है। अभी तो उसके मन में कहीं एक दुबकी सी आशा की डोर थी कि शायद यह उसका वहम हो, किन्तु आज के बाद क्या यह सिर्फ वहम रह पाएगा। यदि वाकई कोई और होगी तो अब मुकुल क्या करेंगे। यह प्रश्न भी उसे मथ रहा था। दूसरी तरफ मुकुल कामिनी के आरोप से बिंधे अपने दिल के टुकड़ों को समेटने की कोशिश कर रहा था। यह एकदम अप्रत्याशित था। तीर तरकश से निकल चुका था... कामिनी और मुकुल तो घायल हुए ही थे, एक शीशा दरक गया था... उनके विश्वास का, उनकी खुशी का और उसकी किरचें दूर तक छिटक कर तीन जोड़ी आँखों में उभरते प्रश्नों और चिंताओं को भी इस टूटन में शामिल कर चुकी थीं।
-डॉ वन्दना गुप्ता
-- Dr. Vandana Gupta
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