मास्क लगाओ, नो क्वेश्चन प्लीज़!
कोई क्यों लिखे? कोई क्यों पढ़े? हिंदी कितने लोग पढ़ते हैं? साहित्य पाठक से दूर क्यों हो रहा है? ...ऐसे सवालों को दरकिनार करके सबको एक ही बात बोलिए- "चलो पढ़ो! पढ़ते नहीं हैं, बस बातें बातें बातें..."
मुझे कल सुबह अपने स्कूली दिनों के एक अध्यापक याद अा गए। वो हमें ऐसे ही डांटते थे। गुस्से से लाल हो जाते, लेकिन अगले ही पल वो पिघल जाते। स्वर में मिश्री सी घोलते हुए कहते- "बेटा, पढ़ोगे नहीं तो आगे कैसे बढ़ोगे?"
तभी कोई शरारती छात्र धीरे से कहता- "सर, आगे क्या है?"
सब हंस पड़ते और उनका गिरा हुआ पारा फ़िर चढ़ जाता। वो लगभग दांत पीसते हुए कहते- "नालायक, तेरे जैसों के लिए कहीं कुछ नहीं है! तू विद्यालय से गधे का गधा ही बिदा होगा।"
उनके गुस्से से डरकर सब लड़के अपना- अपना बैग खोलते और पढ़ने के लिए किताब निकालने लगते।
सच में, ये सब सोचते - सोचते मैं भी पढ़ने के लिए बैठ गया। इस बार मेरे हाथ में किताब अाई जोधपुर की प्रगति गुप्ता की "सुलझे... अनसुलझे!!!"
132 पृष्ठ की इस किताब को दिल्ली के अयन प्रकाशन ने छापा है। मूल्य है 250 रुपए। (मैंने चुकाया नहीं है)
प्रगति जी एक लेखिका से ज़्यादा संवेदनशील परामर्शदाता हैं जो अपने डॉक्टर पति की ही भांति अपने पास आने वाले सामाजिकता से छिटके हुए लोगों की काउंसिलिंग करती हैं। उनकी सामाजिक प्रतिबद्धता इतनी आर्द्र है कि उनकी किताब के लिए सभी से यही कहने का मन होता है - चलो पढ़ो, पढ़ते नहीं हैं!
ये ऐसा ही है, जैसे हम अपने किसी आत्मीय से कहें- चलो, दवाई खाओ!
अब एक राज की बात!
मैं अपने लेखक मित्रों से चुपचाप ये भी कहूंगा कि इसे पढ़ ही लें, आपको उनके मरीजों में बहुत से पात्र मिलेंगे। तो ये एक प्रोफ़ेशनल एडवाइस भी है। नए लेखकों के लिए तो टॉनिक!