क्या ये ठीक है?
जब दस लड़के मिलकर किसी जगह पिकनिक मनाने जाने का कार्यक्रम बनाते हैं तो उनमें एक - दो ऐसे होते हैं जो समय से पहले ही तैयार होकर आ जाते हैं। एक - दो ऐसे भी ज़रूर होते हैं जो अपनी लेट - लतीफी के कारण सबको देर कराते हैं।
एक - दो ऐसे भी होते हैं जो लड़कियों को देख कर छेड़छाड़ और फ़िकरे कसने लगते हैं, और कुछ ऐसे भी होते हैं जो उन्हें रोकें, मना करें। कुछ तटस्थ रहने वाले भी।
लेकिन उनके वापस जाने के बाद कहा जाता है कि लड़के शरारती थे, बदतमीजी कर रहे थे आदि- आदि...
तो क्या हम केवल उन्हें ही नोटिस करते हैं जो नकारात्मक स्वभाव के हों?
क्या जब तक "सब" अच्छे नहीं हो जाते, तब तक अच्छे होने का कोई लाभ नहीं है? सोचिए!
हमारी आज की खबरें और धारणाएं भी ऐसे ही बनती हैं। मीडिया को अपनी विश्वसनीयता बनाए रखने के लिए इस बात पर ध्यान देना होगा। मीडिया नकारात्मकता की आवाज़ न बने।
आज सौ में से चार पढ़ना न चाहने वाले छात्र कॉलेज बंद करा सकते हैं, किन्तु नब्बे पढ़ना चाहने वाले उसे आसानी से शुरू नहीं करवा पाते।
मीडिया को ये फितूर दिमाग़ से निकालना चाहिए कि किसी बस्ती में चार पत्थर फेंकने वालों का फोटो छापने से ही अख़बार बिकेगा, सौ शांति से रहने वालों पर ध्यान देने की कोई ज़रूरत नहीं। उन्हें इग्नोर किया जा सकता है।