"चांदनी की दरकार, निस्बत चांद से"
हर साल मैं अपने थोड़े से ख़ाली समय में किसी नए शौक़ को वक़्त देने की ख्वाहिश रखता हूं।
एक वर्ष मेरे दिल में इच्छा जगी कि मैं संगीत का कोई वाद्य यंत्र बजाना सीखूं। बहुत सोचने के बाद मुझे मुंह से बांसुरी की तरह बजाए जाने वाले एक लोकवाद्य के बारे में पता चला। इसकी आवाज़ बेहद मादक थी और ये बजाने में बहुत सरल भी था।
छोटा सा प्यारा यंत्र जिसे आसानी से कहीं भी बैठ कर बजाया जा सके और लाने- लेे जाने में भी सुविधाजनक।
संयोग देखिए कि मुझे एक नवयुवक ऐसा भी मिल गया, जो इसे बजाने में निपुण था। मैं उसे घर ले आया।
वह तन्मय होकर इसे बजाता और मैं उसके सामने बैठा बैठा मनोयोग से उसकी नशीली आवाज़ सुनता रहता। वह युवक कई दिन तक मेरे साथ रहा।
रात देर तक मैं उसे मधुर तान निकालते हुए सुनता, फ़िर हम सो जाते।
कुछ दिन बाद वह चला गया। उसके जाने के बाद यंत्र हाथ में लेते ही मुझे उस युवक का चेहरा याद आता, जो अब सैकड़ों किलोमीटर दूर अपने गांव में वापस लौट चुका था।
मैं फ़िर वो वाद्ययंत्र कभी नहीं बजा सका। लेकिन उसकी मधुर तान मेरे मन पर हमेशा के लिए अंकित है।
जीवन में हमारा साथी केवल वही कुछ नहीं है जो हमने सीखा, बल्कि उन शिक्षकों की यादें भी हैं, जिन्होंने हमें सिखाया!