आज गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर की जन्मजयंती है। सादर नमन।
मैं इस संदर्भ में एक वाकया आपको सुना रहा हूं। मेरे कुछ बांग्ला और ओड़िया मित्र अक्सर मेरे सरनेम को "गोविल" की जगह "गोबिल" लिखा और बोला करते थे। मैं उन्हें बार- बार याद दिलाता रहता था कि भाई, मैं प्रबोध गोविल हूं, गोविल... गोबिल नहीं। वही गोविल जो रामायण के राम, अरुण गोविल हैं। पर वे भी अपनी आदत और अभ्यास के चलते अपनी तरह ही बोलते।
एक दिन एक साहित्य सम्मेलन के दौरान मैं मित्रों के बीच खड़ा यही बात उन्हें समझा रहा था कि मेरा सरनेम "गोविल" है... तभी पास ही खड़े कोलकाता की एक प्रतिष्ठित पत्रिका के संपादक महोदय बोल पड़े - आप लोग भी तो हमारे रोबींद्र नाथ टैगोर को रवीन्द्र नाथ टैगोर कहते हैं!
मैं ये सुनकर फूला नहीं समाया। उस पूरे दिन मेरे पांव ज़मीन पर नहीं पड़े!
तब से मैं अपने को प्रबोध गोबिल कहे जाने पर मन ही मन इतना आनंदित होता हूं कि कुछ कह नहीं पाता।
गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर को सादर श्रद्धांजलि!