ज़िन्दगी के मेले
भारत की संस्कृति मेले- त्यौहारों के बिना कुछ नहीं है। हर रंग के मेले, हर ढंग के मेले। हर रूप के त्यौहार, हर रस के त्यौहार।
सच पूछें तो हमारी फ़िल्मों को सतरंगी इन्हीं मेलों ने बनाया है।
ग्रामीण भारत को तो इन्हीं मेलों ने पहनना - ओढ़ना सिखाया, इन्हीं में मादक युवा नैनों के सहारे शोख़ बांके आशिक़ ढूंढे गए और इन्हीं में प्रीत की पींगें बढ़ाने को झूले पड़े।
ये मेले दो ही स्थानों पर लगते थे। या तो किसी नदी के किनारे या फ़िर किसी पहाड़ी की तलहटी में।
"मेरा साया" फ़िल्म की एडिटिंग चल रही थी। पूरी यूनिट उत्साह से लबालब थी। सबको जोश था कि फ़िल्म ज़बरदस्त हिट होगी। राजस्थान में तो फ़िल्म से कामयाबी के झंडे गाढ़ने की पूरी उम्मीद थी। लगभग सारी ही फ़िल्म उदयपुर की शानदार दिलफरेब लोकेशंस पर फिल्माई गई थी।
लेकिन साधना को फ़िल्म के लिए कोई बहुत बड़ी उम्मीद नहीं थी।
ये फ़िल्म कोर्ट ड्रामा थी, इमोशंस से भरी कहानी थी। साधना इस फ़िल्म में कोई डांस नहीं चाहती थीं।
उधर निर्देशक का कहना था कि डबल रोल है, दोनों भूमिकाओं के कंट्रास्ट को उभारने के लिए एक फड़कता हुआ नाच ज़रूरी है। साधना को लगता था कि हल्के नूर का नृत्य उनकी शालीन भूमिका के प्रभाव को खा जाएगा।
उनके जेहन में फ़िल्म वक़्त और आरज़ू घूम रही थीं। वक़्त में आठ गीतों में से चार साधना ने गाए थे पर डांस किसी में नहीं था। केवल एक गीत ग्रुपडांस के रूप में शर्मिला टैगोर पर फिल्माया गया था।
आरज़ू में भी उनका डांस नहीं था। फ़िर भी दोनों ही फ़िल्मों का संगीत सुपरहिट था।
साधना यही पैटर्न यहां भी चाहती थीं।
पर दोहरी भूमिका की मांग पर चंद ग्रामीणों के बीच उनका एक फोक डांस फिल्माया जाना था। उन्होंने बेमन से उसे निपटाया। डाकू उनका अपहरण कर के उन्हें ले जाते हैं, ऐसी ही एक स्थिति में गांव वालों के बीच ये लोकनृत्य था।
साधना कहती थीं कि इस डांस के लिए वो मन से बिल्कुल तैयार नहीं थीं, जो कुछ फिल्माया गया वो केवल कोरियोग्राफर की मेहनत का नतीजा है। साधना ने शूटिंग के बाद उन्हें कृतज्ञता से एक उपहार भी दिया।
किन्तु जब फ़िल्म रिलीज़ हुई तो यही डांस और गीत साधना की पहचान बन गया। गीत के बोल थे -
"झुमका गिरा रे, बरेली के बाज़ार में!" गाने के साथ- साथ फ़िल्म भी सुपरहिट हुई।
राजस्थान की शूटिंग लोकेशंस ने फ़िल्मों के इतिहास में एक और नया पृष्ठ जोड़ दिया। यहां के महल, बावड़ियों, मंदिरों, किलों को स्क्रीन पर उतारने के लिए जब फिल्मकार आया करते थे तो वे राजस्थान की मिट्टी में महकने वाले इन मेलों से भी खासे आकर्षित होते थे। यहां के नायाब कलाकारों की नायाब कलाकृतियां भी उन्हें यहां की मिट्टी से जोड़ती थीं। वे घूम - घूम कर उन जगहों को तलाश किया करते थे जो महान चित्रकारों ने अपनी कल्पना से यहां के परिवेश में उकेरी होती थीं।
(चित्र : डॉ भवानी शंकर शर्मा / आलेख: प्रबोध कुमार गोविल)