पृथ्वी दिवस पर पृथ्वी के मन की बात जो वो चुपके से हौले से कान मे फुसफुसा गईँ.....
"धरा हूँ 'अब' जा के चलने लगी हूँ "
तुम्हारे मूढ़ मगज को खोलने लगी हूँ
सोचती हूँ कह दूँ चलते वक्त से
कुछ और धीमा हो जा मैं तो 'अब' चलने लगी हूँ ...
फिर से समन्दर को जीने लगी हूं
लहरों को झिलमिलाते देख सपने संजोने लगी हूं
जहरीले झागों के लम्हे भूलाने लगी हूं
नीले बादलों को गोलों में बुनने लगी हूं
चंदा को सिरहाने रख उठने लगी हूं
हवा की सीटयाँ पिरोने लगी हूं
सूरज को उड़ते पकड़ने लगी हूँ
हरे पत्ते लजाके कुछ झुकने लगे हैं
पंछियों का दाना लेने मुहाने खड़ी हूं
जंगल ठुमकता बहकता सा लगने लगा है
पहाड़ों को नचाते लुड़कने लगी हूँ
तुम्हारे मूढ़ मगज को खोलने लगी हूँ
सोचती हूँ कह दूँ चलते वक्त से
कुछ और धीमा हो जा मैं तो 'अब' चलने लगी हूँ
सोच रही थी कहीं भाग जाऊं
पर तुम से भाग कर कहां जाऊंगी
फ़िर फ़िर यहीं वापस आ जाऊंगी
तुम्हारे मूढ़ मगज को खोलने के लिए
मै धरा मैं धरती मैं हूँ उर्वरा
मैं माँ हूँ तम्हें जीना सिखाने लगी हूँ
तुम्हारे मूढ़ मगज को खोलने लगी हूँ
सोचती हूँ कह दूँ चलते वक्त से
कुछ और धीमा हो जा मैं तो 'अब'चलने लगी हूँ।
धरा के मन की बात जो वो
चुपके से हौले से कान मे फुसफुसा गईँ
"धरा हूँ 'अब' जा के चलने लगी हूँ "
*मौलिकता का प्रमाण पत्र*
मैं नन्दिता रवि चौहान निवासी अजमेर राजस्थान।
यह प्रमाणित करता/करती हुँ की यह रचना मेरी स्वलिखित व मौलिक रचना है। यदि यह रचना कॉपीराइट act के तहत पाई गई तो इसका जिम्मेदार मैं स्वयं रहूँगा/रहूँगी।
नन्दिता रवी चौहान
अजमेर (राजस्थान)