बिस्तर पर बेचैनी से ,
करवटें बदलते हुए,
कितनी ही यादों की,
सलवटों से ,गुजरते हुए,
तिल तिल कर ,युगों सी ,
बेरहम शब, ढलते हुए,
कैसी टीस दे जाती है मुझे,
काश! तुम समझ पाते।
काश की मेरी ,नादानियों को,
तरह दे जाते,
काश! की मेरी बेचैनियों को,
चुपके से, सहला जाते,
काश! कि मेरी उम्र के,
सफ़े फाड़ जाते,
काश !की यूँ न मेरा,
दामन छोड़ जाते।
ज्योत्स्ना ।