"चाहत"
अपनी ठौर बैठा हुआ
ना जाने कहां?
खो जाता हूं मैं।
स्थिर-सा,
हो जाता हूं मैं।
बेपता, कहां-कहां
चला, जाता हूं मैं।
ज़रा पूछो तो!
क्या चाहता हूं मैं।
इधर-उधर, यहां-वहां
इस दुनिया, उस दुनिया
ना जाने किस दुनिया
में खो, जाता हूं मैं।
ज़रा पूछो तो!
क्या चाहता हूं मैं।
अपना-पराया, अच्छा-बुरा
राग-द्वेष, शाप-दुआ
ना जाने किन-किन
भावों में ऐंठा हुआ
लौट, तुम्हीं पे
आता हूं मैं।
ज़रा पूछो तो!
क्या चाहता हूं मैं।
जाता, फिर आता
यूं ये नाता,
सजाता हूं मैं।
अपने उर के अंदर
ही अंदर, गाता हूं ये
तुम्हारे दिल की
गहराई में,
कुछ और उतरना
चाहता हूं मैं।।
- रमेश कुमार गोलिया