हर सुबहा जब भी देखु बिखरी सी है तेरी ज़ुल्फ़े
मन कहे जैसे इनपे हक़ हो मेरा वैसे सवार लूँ
लम्बे से उन हाथो को लेलु मेरे हाथ में
मन कहे मिलती कही है लकीर हमारी,जान लू
जब जब उठाये तू अपने कदम
मन कहे हर रस्ते तेरे मेरी और मोड़ दू
जब ले अपने आवाज़ में मेरा नाम
मन कहे कोई और हर्फ़ कान में पड़ने ही ना दू
कभी ना रुकते अधर जब बोलते जाये
मन कहे चुप करवाके उन्हें छोटा सा पाप ही कर लू
मिलते ही नज़र डर लगे गुम ना हो जाऊ
क्षण व् क्षण बदलते तेरे चेहरे के ये भाव
किसी अनपढ़ी किताब की तरह पढ़ ना चाहूँ
तुम्हारी आँखों की हर अनकही सी बात सुनना चाहूँ
ए अजनबी तुजे और करीब से में जानना चाहूँ