दुनिया की नहीं अब, अपने मन की सुनती हूं मैं।
कहता है जो मन मेरा, वह अब करती हूं मैं।
बैठ आइने के सामने, दूजों के लिए नहीं
खुद के लिए ही अब, सजती संवरती हूं मैं।
करती नहीं परवाह कि लोग क्या कहेंगे।
बेधड़क हो अपनी बात, अब रखती हूं मैं।
रह गए थी जीवन की इस भागदौड़ में।
जो ख्वाहिशे अधूरी, उनको पूरा करती हूं मैं।
फुर्सत से हाथ में ले चाय का प्याला,
खुद से ही बातें करती हूं मैं।
हासिल करने अपनी एक पहचान
रोज ख्वाहिशो के एक नये सफर पर निकलती हूं मैं।
सरोज ✍️