रोग (लघुकथा)
ये एक अजीब बात थी।
आर्यन को हर समय ऐसा लगता था जैसे कोई न कोई उसे छूता रहे। वह सड़क पर चलता तो रास्ते से जाने वाले हर शख़्स को देख कर यही सोचता कि ये इतने फासले से क्यों गुज़र रहा है? उससे सट कर क्यों नहीं निकलता?
कभी तेज़ हवा या आंधी चलती तो उसे अच्छा लगता। उसे महसूस होता कि हवा उसके बदन को रगड़ती हुई गुज़र रही है। अगर आंधी में धूल उड़ती तो सब लोग उससे बचते हुए कहीं ठहर जाते और आंधी के बगूले के गुज़र जाने की प्रतीक्षा किसी पेड़ या दीवार की ओट में खड़े रह कर करते।
मगर आर्यन के लिए ये एक मज़ेदार अहसास होता। धूल उसके तन से लिपटती हुई जाती तो उसे अच्छा लगता।
कोई गाय, कुत्ता या तितली भी निकले तो उसका बदन चाहने लगता कि उससे रगड़ खाते हुए निकले।
उसके अपने कपड़े भी अगर उसके शरीर से टकराते तो उसे बहुत अच्छा लगता।
वह इसी अहसास को जीने के लिए एकदम ढीले- ढाले कपड़े पहना करता। ताकि चलते - चलते उसके कपड़े हिलें और उसके तन को सहलाएं। लटकते कपड़े की हल्की गुदगुदी उसके मन में प्राण भर देती।
आख़िर उसने एक दिन डॉक्टर के पास जाने का फ़ैसला किया। डॉक्टर ने उसकी समस्या सुन कर उसे एक मनोचिकित्सक के पास भेज दिया।
मनोचिकित्सक ने कई दिन तक उससे बात की और उसे थैरेपी दी।
उसने ये भी कहा कि उसे कोई रोग नहीं है। ये केवल अहसास है जो कुछ ही दिनों में दूर हो जाएगा।
चिकित्सक ने बताया कि किसी महानगर से छोटे शहर या गांव में आने पर कुछ दिन ऐसा होता है। वहां हमें हर समय,हर जगह इतनी भीड़ की आदत हो जाती है कि यहां आने पर हमें लगने लगता है जैसे हर कोई हमसे बच -बच कर दूर- दूर से क्यों गुज़र रहा है? हम स्पर्श के लिए तरस जाते हैं, जो हमें बड़े शहर में स्वाभाविक रूप से ही मिलते रहते हैं।