मैं स्त्री हूँ, मैं नदी हूँ
कल -कल बहती ,पल पल बढ़ती
कभी हिमनद सी सख्त हुई
कभी सरिता सी निर्मल हूँ
बढ़ती रहती हूं,दिन -प्रतिदिन
चीरते हुए मुसीबतों का सीना
रुकना नहीं है,झुकना नहीं है
नित आगे बढ़ते जाना है
कीर्तिमान नए बनाना है
नहीं बनना मुझे औरों जैसा
मैं जैसी हूँ, अच्छी हूँ
निर्मल,कोमल पर दुर्बल नहीं
श्रंगार हूँ, तो हूँ हुंकार भी
हूँ पुकार ,तो हूँ प्रतिकार भी
पायल की झंकार हूँ
तो हूँ काली की हुंकार भी
मत रोक तू रास्ता मेरा
मुझे मेरे रास्ते जाने दे
मैं स्त्री हूँ ,मैं नदी हूँ
मुझे सागर में मिल जाने दे
अपना समस्त समर्पण कर
अपना अस्तित्व पा जाने दे