इन काली सदियों के सर से, जब रात का आंचल ढलकेगा
जब दुख के बादल पिघलेंगे, जब सुख का सागर छलकेगा
जब अम्बर झूम के नाचेगा, जब धरती नज़्में गायेगी
वो सुबह कभी तो आयेगी ॥
जिस सुबह की खातिर जुग-जुग से, हम सब मर-मर कर जीते हैं
जिस सुबह के अमृत की धुन में, हम जहर के प्याले पीते हैं
इन भूखी प्यासी रूहों पर, इक दिन तो करम फर्मायेगी
वो सुबह कभी तो आयेगी ॥
ऐसी अमर संगीत रचना देने वाले (मुहम्मद ज़हूर) खैय्याम अब हमारे बीच नहीं रहे।अभी से थोड़ी देर पहले मुंबई के एक अस्पताल में उनका इंतकाल हो गया।शोला और शबनम(1961) से अपना फ़िल्मी सफ़र शुरू कर उन्होंने एक के बाद एक यादगार बंदिशें सजाईं और उनको न सिर्फ़ लोकप्रियता मिली बल्कि हर स्तर के सम्मान/पुरस्कार मिले - 2011 में पद्म भूषण तक।फिर सुबह होगी,बाज़ार, नूरी,कभी कभी,उमराव जान इत्यादि उनकी सार्वकालिक लोकप्रिय फ़िल्में हैं।
खैय्याम साहब हमारे दिलों पर हमेशा राज करेंगे - सादर नमन!