दुनियादारी से मसरूफ़ियत के बाद मैंने
ख़्वाहिशों के परिंदो को दोनो हाथ खोल के
ज़हन से आज़ाद कर दिया,
पिंजरा अब खाली और खुला भी है,
तोड दिया दरवाज़ा ही,
अब कोई परिंदा कैद न हो सके ,
फिर भी आते हैं कईं परिंदे ख़्वाहिशों के
पर अब हुक़ूक नहीं करते,
वापस लौट ही जातें हैं
सोचती हूँ कमसकम उनकों यादोँ में जी लूं ,
अब ख़याल आता है, यादें खुले आसमान में आज़ाद , बेफीर्क हो कर बनती है
बंध दरवाज़े सिर्फ मुंतज़िर पैदा किया करतें हैं,
अब कोई मसला नहीं, सर्फ़ हो गया जो पुराना था,
आख़िर उन परिंदो की तकदीर में मुमकिन लिखा था वो खुशियाँ और यादें बटोरना ।
@B