भोंरे अब बौरा गये....
भोंरे अब बौरा गये, माली हैं बैचेन।
कली शाख से टूटतीं, कैसे बीते रैन।।
भौंरों का गुंजन बना,कलियों का अब काल।
फूलों का हँसना छिना, झुके हमारे भाल।।
कातिल बनकर घूमते, हो गये हैं निर्भय ।
काम वासना से घिरे,नहीं समाज से भय ।।
पाप पुण्य को भूलकर, हुये विधर्मी लोग।
रिश्ते नाते बलि चढ़ें, दूषित मन का रोग।।
नन्हीं कलियाँ तोड़कर, फेंक रहे हैं राह।
कैसे जालिम बन गये, जग से बेपरवाह।।
पश्चिम की पुरवाई ने, बदल दिये सब रंग।
पूरब में आंधी चली, सभी देखकर दंग।।
बचपन दूषित हो रहा, मन में बुरे विचार।
कामक्रोधमद लोभ से, छूटे सब सुविचार।।
शिक्षा का संस्कार से, नहीं रहा सम्बंध।
मर्यादायें टूटतीं, सामाजिक अनुबंध।।
मन के रोगी बढ़ गये, व्यर्थ रहा उपचार।
फाँसी जैसे दंड से,रुका नहीं व्यभिचार।।
रोपें आज बबूल को, रखें फलों की आस।
मूरख हैं वे जगत में, होंगे सदा निराश।।
संस्कारों के बीज को, घर घर बोयें आज।
ताकि संस्कृति खिल उठे,गूंज उठें सुरसाज।।
मनोज कुमार शुक्ल "मनोज "