जी बहलता भी नही हैं ना शुकुन मिलतां है
फोन से मेसेज से, दिल अब कहां भरतां है
आज कल खुद से ही बाते करती रहती हुं मैं
मेरी ये हरकत से मेरा आइना हसतां है
आज कल लवस्टॉरी पढ के दिन बिताती हुं मैं
तुं नही तो वक्त मेरा ऐसे हीं कटतां है
जान पर आ जाती है मेरी ये ख्वाहीशे अब
आग लगती है बदन मे नां धुंआ उडता है
शाम होते ही परिंदे लोट आते है रोज
घोंसला मेरां भी तेरी राह को तकतां है
इश्क करने की सजा दोनो को मिलती कहां है
कैद में तेरी में,तुं चाहे वहां फिरतां है
शाम ढलती है मगर ये खौफ रातो कां है
ये अकेलापन भी सांपो की तरह डसतां है
ये महोतरमा तुझे मिलने तडपती हैं और
तुं है अपने काम में हीं बस लगा रहतां है
– नरेश के.डॉडीया