#kavyotsav2 #काव्योत्सव2
**खिड़की से बाहर**
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याद है मुझे
तुमने कहा था
जब झांकोगी ज़रा
खिड़की से बाहर ..
तो बहती हवा में
सुनोगी मेरी आवाज़
चहकते पंछी गुनगुना रहे होंगे वो गीत
जो गाया था हम दोनों ने एक साथ
ढलती शाम में..
खिड़की से देखना
पेड़ों की डालियों पर
हौले से हिलती पत्तियां
सहलाएंगी तुम्हारे बाल
जैसे मेरी उंगलियां किया करती थी
तुम्हारी लटें ठीक
और तुम सो जाती थी
मेरे हाथों का स्पर्श पाते ही...
खिड़की से बाहर
ज़रा ऊपर की ओर देखोगी
तो चाँद हँसाएगा तुम्हें
तरह तरह के चेहरे बना
जैसे मैं बन जाता था
कभी जोकर तो कभी बंदर तुम्हारे लिए...
खिड़की से दिखता
नीले आसमान का दोशाला
महसूस करना अपने कंधे पर
जो हवा के सर्द होते ही
पहना देता था मैं तुम्हें
अपनी बाहों के साथ....
सब याद है मुझे
कुछ भी नहीं भूली मैं
चलती होगी हवा भी
गाते होंगे पंछी भी
हिलती ही होंगी पत्तियां भी
पर मैं खुद ही सो जाती हूँ अब
चांद भी ज़रूर बनाता होगा चेहरे
आसमान जाने नीला है या स्याह...
नहीं मालूम
याद तो है मुझे
सब याद है...
लेकिन
तुम्हारे जाने के बाद
कैद हो गई हूं
दिल के जिस तहख़ाने में
बस
वहां कोई खिड़की नहीं है
वहां कोई खिड़की ही नहीं है....
#अंजलि सिफ़र