*लौ*
जल रही हूँ
लौ की मानिंद...
कतरा कतरा
पिघल कर
बहती जा रही हूँ...
रूह मेरी अब
परते छोड़ रही है
जिस्म की पैरहन से मुझे
आजाद कर रही है...
अंधेरो में मुझे
रौशनी नई दिखा रही है...
बस ख़त्म होने को है
ये तपिश...
हैं वक्त का इंतज़ार मुझे....
शिरीन भावसार
इंदौर (म. प्र.)