#काव्योत्सव
एक शाम कान्हा को मस्ती छाई
थोडा सा झुके फिर ली अंगड़ाई
देख उन्हें राधा मन ही मन मुस्काई
लाज के मारे मगर कुछ शरमाई
पास आये मचल कर कन्हाई
थोडा सा हंसे फिर विनय से बोले
अरी राधे सुन, तुम हो मेरी सखी
क्यों छुपाती हो मुझसे अपनी हंसी
ना मैं भोला कतई ना नादाँ हूँ मै
सोलह कलाओं से भी परिपूर्ण हूँ मैं
अरी, फिर भी मुझे बनाती हो तुम
अपनी चाहत मुझसे छुपाती हो तुम
राधा थोड़ी सी सकुचाई
मन ही मन अचकचाई
लाज से भारी हुए नेत्र
मन की बात ना कह पाई
सच में छलिया है ये भारी
मन की भावना पढ़ डाली इसने सारी
अहसास था वो है बड़ा ही ज्ञानी
मगर अज्ञानता की चादर मैंने तानी
कान्हा का प्रेम ना पाई मैं अजानी
उफ़, यह कैसी मैं कर बैठी नादानी
कान्हा अब हुए मथुरा के वासी
अब रो रोकर बाट जुहारे राधा रानी
गिरे प्रीत के फूल हो गए पल में रेत
पछताए अब होत क्या जब चुग गयी चिड़िया खेत
तभी बजी भोर की घंटी और मैं झुँझलाई
एक पल को शरमाई फिर खुद पे ही हंसी आई
विनय.....दिल से बस यूं ही