#काव्योत्सव
पुरुष मन अबुझापन
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अवधूत का अद्वैत बनना चाहती हूँ
सुनो,
हाँ कुछ पल को
मैं पुरुष बनना चाहती हूं
नारी हूँ गर्विता भी हूँ
मगर
अर्धनारीश्वर को जीना चाहती हूँ
चाहती हूँ समझना
पुरुष के मन की पीड़ा
पढ़ना चाहती हूँ उसका मन
लेनी है थाह
उसकी गहराइयों की
कैसे एक स्त्री को
बाँध लेता है
खुद बंधे बगैर
कैसे रोक लेता है आँसू
अपनों के दर्द को जीकर
क्या कोमलता नही
उसमें जर्रा भर भी
या कठोरता ही नियति उसकी
एक स्त्री जीती है
कोमलता कठोरता के संगम को
क्या पुरुष में इतनी
सक्षमता नही
या वंचित रखा है ईश्वर ने
कोमल भावनाओं से उसे
या फिर डरता है वह
एक स्त्री को जीने से
छीन लेगा यह जमाना
पुरुष होने का गौरव
लगा देगा उस पर मोहर
एक जनाना मर्द की
जो विशेषता होकर भी
उसके अंतर्मन को कचोटेगी
पुरुष के दम्भ को
नागिन सा डस लेगी
एक पल को जो मिले आशीष
अर्धनारीश्वर का मुझे
दिमाग में जहर बोते
सवालों का तो जवाब मिले
जी लूँ कुछ पल नर जीवन के
पुरुष की व्यथा के पट तो खुलें।
विनय...दिल से बस यूँ ही