कविता
छोरों बीच शहर
अर्पण कुमार
भोर में जागा
बिस्तर पर लेटा
बंद किए आँखें
निमग्नता में
डूबा हूँ आकंठ
स्मृति-सरोवर में तुम्हारे,
दूर किसी मंदिर से
शंख-ध्वनि आती है
उठान लेती और
क्रमशः शांत होती जाती,
कमरे से बाहर
नहीं निकला हूँ अब तक
मगर सभी गतिविधियाँ
दिख रही हैं मुझे
यहीं से
आवाज़ के भी अपने चेहरे होते हैं
कोई अपना दुपहिया
स्टार्ट करता है
और कुछ देर के लिए
उपस्थिति दर्ज़ कराता
वातावरण में अपनी पों-पों की
गायब हो जाता है
तेज़ी से अपनी मंज़िल ओर
जगने की तैयारी करते
शहर की खटराग सुनता हूँ मैं
अपने बंद अँधेरे कमरे में
चौकन्ने और शांत कानों से
किसी घर का दरवाज़ा
खुल रहा है
किसी दुकान का शटर
किसी के बच्चे जाग रहे हैं
किसी के मियाँ
कोई बर्तन मल रहा है
कोई अपनी आँखें
चिर-परिचित मुहल्ले का
अस्तित्व ढल जाता है
उतनी देर
निराकार मगर क्रियाशील ईश्वर में
हवा की सांय-सांय पर
कब्ज़ा जमा लिया है पक्षियों ने
अपने सामूहिक कलरव से
हॉकर
गिराकर अखबार
धप्प से
बरामदे में
चला गया है
दूसरी गलियों में
अपनी पुरानी साइकिल पर
ताज़ी खबरों का बंडल लादे
सुर्खियाँ फड़फड़ा रही हैं
दस्तक देतीं दरवाज़े पर
मैं कमरा खोल देता हूँ
शहर के इस छोर पर
सूरज अपनी गठरी खोल चुका है
दिन के शुरुआत की
आधिकारिक घोषणा हो चुकी है
अब तुम्हें भी
उठकर मेरी कविता से जाना होगा
शहर के उस छोर पर
बीती रात जहाँ
तुम सोयी तो ज़रूर थी
मगर
बदलकर करवट
चुपके से पलट आयी थी
इस छोर पर
आँखों में चढ़ी
एक छोर की खुमारी को मलते हुए
शुरू करना है तुम्हें
अपनी दिनचर्या सारी
शहर के दूसरे छोर पर
।
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#KAVYOTSAV -2