मित्रता की लोच अर्थात इलास्टिसिटी ऑफ़ फ्रेंडशिप
पुराने समय में मित्र ऐसे बनते थे-
-पास-पड़ौस में रहने वाले हम-उम्र लोग।
-साथ पढ़ने वाले बच्चे या साथ काम करने वाले लोग।
-लड़कों के मित्र लड़के और लड़कियों की मित्र लड़कियां
-यात्राओं में मिल जाने वाले समान-स्तरीय लोग।
अब दोस्त ऐसे बनते हैं-
दुनियां के किसी भी कौने में बैठे किसी भी उम्र,व्यवसाय,कैसी भी अभिरुचियों के किसी भी प्राणी की मित्रता दिन- रात के किसी भी पहर दुनियां के किसी भी स्थान पर कुछ भी करने वाले किसी भी उम्र के,किसी भी व्यवसाय के,कैसी भी शक्ल-सूरत के किसी भी जाति-धर्म-नस्ल-सम्प्रदाय के किसी भी भाषा के बोलने वाले, न बोलने वाले, अमीर-गरीब, गोरे-काले लम्बे-छोटे-मोटे-पतले स्वस्थ बीमार स्त्री-पुरुष या अन्य,के साथ परवान चढ़ सकती है। शर्त केवल एक है कि वे दोनों हों। [ये मत कहियेगा कि जो न हो उसकी छवि से भी हो सकती है]
इसी से अनुमान लगाइए, कि मित्रता की लोच की सीमा क्या है?
अब दूसरी बात यह है कि मित्रता की अवधि क्या है?
यह एक क्षण से लेकर जन्म-जन्मान्तर तक हो सकती है।
एक बार दो घनिष्ठ मित्रों से किसी ने पूछा, आप दोनों एक दूसरे के साथ न होने पर कैसा महसूस करते हैं? पहले ने कहा- "ऐसा लगता है जैसे सूर्य से टूट कर एक टुकड़ा ठंडा हुआ और धीरे-धीरे उस पर जीवन तो आया, मगर इस सारी प्रक्रिया में समय बहुत लग गया।"
दूसरा बोला-"इसने बता दिया न , बस, वैसा ही।"
वह व्यक्ति बोला- "अच्छा,जब आप दोनों साथ होते हैं तब आपको कैसा लगता है?"
दोनों कुछ न बोले।