#MoralStories
जून माह की एक तपती दुपहरी कोई 2:00 बजा होगा। डॉक्टर के यहाँ से लौटती मैं, अपने ही ख्यालों में मगन चली आ रही थी। बाप रे! कितनी गर्मी है।घर जाते ही नहाकर वो गुलाबी हल्का वाला सूट पहनूंगी। लेकिन उस सूट को देकर तो मैंने छोटी परात ले ली थी। अब क्या करूं? भगवान इतनी गर्मी क्यों है? अचानक मेरी नजर उस महिला पर पड़ी जो सधः स्नाता सी लगभग पसीने से भीगी हुई, एक इमारत में गारा ढोने का काम कर रही थी।
एक विचार मन में कौंधा--हमारे पास हर मौसम के लिए अलग-अलग किस्म के कपड़े हैं, पर क्या इसके पास 2 जोड़ी के अलावा तीसरा कपड़ा होगा? हाँ, हो भी सकता है लेकिन उसे संभाल कर रखा होगा किसी शादी, ब्याह या मेले में पहनने के लिए। आज घर जाने के बाद नहाकर दूसरी धुली धोती पहनेगी और इसे धोकर डाल देगी कल के लिये। यही क्रम चलता रहेगा।
बहुत छोटा महसूस कर रही थी। लानत है मुझ पर जो पुराने कपड़ों से बर्तन खरीद लेती हूँ। आभारी हूँ उस पल की, जिसने मुझे एहसास कराया और बुद्धि दी। आज 25 वर्ष गुजर चुके हैं, मैंने कभी एक चम्मच भी नहीं खरीदा। हमारे लिए बेजरूरत का सामान और कपड़े कुष्ठ आश्रम में दे आती हूँ। सच बहुत खुशी मिलती है। उस दिन पलकों की कोरों से झलक आयी वो दो बूंद ही,मुझे जीवन में सही दिशा में और आगे बढ़ने की प्रेरणा देती हैं।
नीलिमा कुमार