My book
बुढापे की लाठी ••••••••
"त्रिलोकचंद के घर लोगों का जमावड़ा लगा हुआ था। सीढियों से फिसलने के कारण उनके पैर में फ्रैक्चर हो गया था। लोग आपस में फुसफुसा रहे थे,
" बुढ़ापे में भगवान ने क्या दुख दे दिया। अब कौन करेगा इस बेचारे की टहलकदमी?"
"इसका कोई बेटा भी तो नहीं है जो इसके बुढ़ापे का सहारा बने।"
तभी त्रिलोकचंद की तीनों बेटियां आरती, किरण और मेघा हड़बड़ाई सी भागती हुई वहां पहुंची।
"पापा आपने हमें फोन क्यों नहीं किया कि आपके पैर में फ्रैक्चर हो गया है? क्या अब आप हमें बिल्कुल भी अपना नहीं समझते हो?"
त्रिलोकचंद ने भावुक होते हुए उत्तर दिया,
"नहीं बेटा। मैं तो बस तुम सभी को परेशान नहीं करना चाहता था।"
तीनों बेटियां लगभग समवेत स्वर में बोली
"पापा बस अब हम आपकी एक भी नहीं सुनेंगे और बारी-बारी से आपका ख्याल रखेंगे।"
यह कहते हुए एक बेटी ने उन्हें दवाई दी। दूसरी बेटी ने उनकी कमर के पीछे तकिया लगा दिया। तीसरी बेटी जूस का गिलास लेकर हाजिर हो गई। पास खड़े लोग जो पुत्रहीन त्रिलोकचंद को बेबस और लाचार समझकर तरस खाते थे, उनके चेहरे से रौनक एकदम गायब हो चुकी थी। त्रिलोकचंद अपनी बेटियों की स्नेह छाया में जीवन की सबसे कमजोर सीढ़ी बुढ़ापे का असली आनंद उठा रहा था।
▪▪▪▪
--Ajay Kumar Srivastva