साहित्य को अपाहिज़ मत बनाइए। साहित्य समाज का दर्पण है। समाज में अश्लीलता है तो वो साहित्य में भी दिखेगी। साहित्य काग़ज़ की ज़मीन पर सुन्दर सुगढ़ सजावटी अल्पना बनाने का नाम नहीं है। जो बातें साहित्य से हटाना चाहते हैं, उन्हें समाज से हटाने की कोशिश कीजिए। साहित्य से वे अपने आप हट जाएंगी। उजाले उगते नहीं हैं, सूरज उगता है तो उजाले अपने आप हो जाते हैं। - ("उगते नहीं उजाले" में प्रबोध कुमार गोविल)