बाहर क्यों ढूँढते फिरे अपनापन ?
चलना... खुद से आकर रुबरु हो जाएँ !
इधरउधर क्यूँ खोजने लगे आशियाना ?
चलना... खुद के भीतर जाके बस जाएँ !
खुद से रुबरु होने मे परहेज़ कैसा ?
चलना... हँसते हुए खुद पे फिदा हो जाएँ !
देख शाखाओं पे आसन लगा है बसंती,
चलना... सुगंधित फूल बनके बैठ जाएँ !!
ये जिंदगी मे 'पूर्णविराम' को जगह नहीं ,
चलना... 'अल्पमात्रा' मे यूँही बहते जाएँ !!
~Damyanti Ashani