शहर में पक्के मकान होते हैं। दीवार से दीवार सटे हुए। महँगी जमीनें होती हैं तो खुले आँगन वाले घर नहीं बन पाते। घर पर दो–चार गमले रखकर पर्यावरण प्रेमी होने की इतिश्री कर ली जाती है। अगर बमुश्किल कोई खाली प्लॉट बचता भी है तो उसमें या तो कूड़ा फिंकता है या फिर कोई मोबाइल टॉवर लग जाता है जो चिड़ियों को और दूर भगाता है। लेकिन गाँव में तो था बड़ा–सा आँगन था, जिसमें पाकड़ का पेड़ भी लगा था। इसी पाकड़ के पेड़ पर सुबह–सुबह चिड़ियाँ आकर चहचहाने लगती थीं। बड़ी शोखियों से वो ये साबित करने में लग जाती थीं कि जब तक हमारे प्राकृतिक आवास हैं तब तक किसी अलार्म की आवश्यकता नहीं है। जब चहचहाहट से रोहन की आँख खुली तो उसने समय देखा। ये पाँच बजे का समय था। रोहन को इतनी जल्दी नहीं उठना था। लेकिन ये चिड़ियों की चहचहाहट बन्द ही नहीं हो रही थी। रोहन ने सिर के नीचे से तकिया निकालकर अपने कान के ऊपर रखकर जोर से तकिया दबाया ताकि चहचहाहट न सुनायी दे। लेकिन प्रकृति से भी कोई जीत सका है भला।
क्रमश:......
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