संतुष्टि (लघुकथा)
एक युवक की तबीयत ख़राब हो गई।वह गुमसुम रहने लगा। न उसका मन घूमने फिरने में लगता, न बोलने, खाने में।
इस उम्र में ऐसा बर्ताव देख कर उसके घरवाले चिंतित हो गए।
उसे डॉक्टर के पास भेजा गया।
डॉक्टर के रोग के बारे में बहुत पूछने पर उसने बताया कि उसे दुनिया में किसी पर भी विश्वास नहीं होता।हर आदमी को देखकर लगता है कि ये भ्रष्टाचारी है,देश को लूट कर खा रहा है, इसी तरह हर औरत को देखकर ऐसा लगता है कि ये दुनिया के अनुशासन को तोड़ने के लिए ही बनी है,इसे कहीं भी, कैसे भी बस स्वाधीन ज़िन्दगी चाहिए।
डॉक्टर ने कहा- इससे तुम्हें क्या परेशानी है? तुम आराम से खाओ पियो, खुश रहो, तुम्हें कोई रोग नहीं है।
युवक कुछ न बोला।
युवक के साथ आए परिजन आपस में बात करने लगे और बोले- चलो किसी दूसरे डॉक्टर के पास ले चलते हैं, इसे तो रोग समझ में नहीं आया।
डॉक्टर ये सुनते ही सकपकाया, बोला- नहीं नहीं, ठहरो... ये लो दवा की पर्ची, ये चार इंजेक्शन लगेंगे, और ये गोली एक एक घंटे बाद खाना। आठ दिन बाद फ़िर... दो हज़ार रुपए देदो।
परिजन अब संतुष्ट थे। इलाज़ हो गया था।