जलाशय (लघुकथा)
ये उन दिनों की बात है जब न तो पुल हुआ करते थे और न ही नावें। कहीं भी पानी होने का मतलब था दुनिया की दीवार। जो इधर है,इधर रहेगा,और जो उधर है,वह उस पार ही रहेगा।
जो बरसाती नदी-नाले हुआ करते थे,वो भी बस्तियों को बांट दिया करते थे।और जब बरसात का मौसम बीतने पर वहां पानी उतरता,तो ज़मीन दिखती और आवागमन शुरू होता।
लोग उन दिनों पानी से बहुत त्रस्त रहते थे। वे चाहते थे कि पानी बीत जाए, रीत जाए।
लोग पानी को मारा करते थे। कोई पानी की सतह पर पत्थर फेंकता,तो कोई डंडे से उसे पीटता।कोई गंदा हो जाता तो सब उस पर पानी फेंकते।वह ख़ुद भी अपनी गंदगी उतार उतार कर पानी में फेंका करता।
आख़िर एक दिन परेशान होकर पानी ने एक आपात बैठक की। जगह जगह का पानी इकट्ठा हुआ। पानी ने कुछ अहम फैसले लिए ताकि उसकी वकत बनी रहे।
पानी ने तय किया कि वह अब इंसान के लिए बाधा बन कर केवल दरिया-समंदर, तालाब-पोखर, गड्ढे-नालों में ही नहीं रहेगा, बल्कि इंसान के साथ कंधे से कंधा मिला कर उसके अपने साथ भी रहेगा। वह इंसान की आंखों में रहेगा, उसके ख़ून में रहेगा, उसकी दाल-रोटी में रहेगा। उसके घर, उसके रिश्तों में रहेगा।
उधर इंसान ने भी जब पानी के रुख़ में बदलाव देखा तो उसने भी सोचा कि वह अब पानी के साथ प्रेम से रहेगा। पानी जहां बहना चाहेगा, इंसान उसके उतरने की बद्दुआ नहीं करेगा। बल्कि उसकी मौजों की रवानी का सम्मान करके उसे बहता रहने देगा।उस पर पुल बना लेगा,या फ़िर उस पर ख़ूबसूरत बजरे तैरा देगा, कश्तियां उतार देगा, मस्तूलों वाले जहाज बहा देगा। इतना ही नहीं,उसने सोचा की वह बरखा का स्वागत गा कर किया करेगा।
कहते हैं कि इस परिवर्तन से मिट्टी-पानी के बीच ऐसा प्यार पनपा कि धरती गर्भवती हो गई।और उसके गर्भ से एक दिन ऐसा जलाशय जन्मा जिसमें दुनिया का तमाम पानी समा गया।