बुझ गई है एक घर से रोशनी और
लगता है लोगो से इंसानियत खो रही है
कोने से सिसकती कातर सी जिंदगी
बुझते दिए से जैसे लौ रो रही है
इंसाफ मांग रहे है जो हमदर्द जिसका
बता दो फिर कोई बराबर की सजा
है कोई सजा उस डर के बराबर
जिसे महसूस किया है लौ ने बुझने से पहले
बताओ सजा उस उम्मीद के बदले
जो आखिरी सांसो तक तकती रही निगाहें
रहम को तरसती हर आह के बदले
हर सजा कम है उस गुनाह के बदले
नहीं है सजा कोई उस दर्द के बदले
नहीं है सजा कोई उस वक्त के बदले
जिसे महसूस किया किया है लौ ने बुझने से पहले
बस इतना सा रहम तू कर दे खुदा
इंसानियत जरूरी करदे तू सांसो के बदले
घुटने लगे दम इंसा का तभी
कम होने लगे रूह से जब इंसानियत कभी
हर जुर्म की अब हद हो रही है,
लोगो से इंसानियत खो रही है ।.