*क्षणिकाएं*
ढूंढ न सका
एक मजबूत दरख़्त की छत
सूखे पत्तों के साए में बैठा मैं,
हवा चलती रही
पत्ते बिखरते रहे
और मैं झुलसता रहा।
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एक मुकम्मल जहां की
ख्वाहिश में
बेच दी टुकड़ा टुकड़ा ज़िन्दगी
ना मुकम्मल जहां मिला
न ज़िन्दगी ही रही।
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अनगिनत सवाल लिए
जवाबों की तलाश में
भटकती है दुनिया,
बेहिसाब जवाबों की
गठरी उठाकर
भटकता हूं दर ब दर
कि कोई सवाल पूछता है नहीं।
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*विनोद ध्रबयाल राही*
9625966500