कल फिर उदय होना
मनुष्य की तरह,
मैं देख सकूँ तुम्हें
वसन्त की तरह।
मन के छोर पकड़ते-पकड़ते
थका नहीं हूँ,
कुछ और दूरियां हैं शेष
अभी रुका नहीं हूँ।
फूल सुन्दर लगते हैं
देखना छोड़ा नहीं,
इस उदय-अस्त में
चलना रुका नहीं।
कल फिर दिखना
नक्षत्र की तरह,
मैं राह पर रहूँगा
राहगीर की तरह।
*** महेश रौतेला