ग़ज़ल: “वो जो लफ़्ज़ों से परे है…” तजल्ली-ए-हक़, फ़ना, तस्लीम, सूफ़ी मिज़ाज रग़ / -सग़...से परे है
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वुजूद ओ साया, हर इक इशारा जिससे परे है,
हिज्र में भी महज़ूर है, हादसा निगाहसे परे है।
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न हसरतों की कसक, न आरज़ू की सदा सहर है,
जरा सरमदी है मग़रूर, इश्तियाक़ दिलसे परे है।
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न कर्म का असर, न सवाब की तवक्को के राज है,
मुक़ाम-ए-तस्लीम का, इब्तिदा ताजुब्बसे भरे है।
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बेगानगी वो सज्दे में भी है, और तजल्ली में भी,
जो अर्श से नहीं, अर्श का सदा इबादतसे परे है।
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हिजाब ओ जल्वा, तमाशा-ए-दिल के फ़रेब से है,
बसीरत-ए-नूर में जो है, वो रज़ा तस्लीमसे परे है।
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जदह क़ज़ा की निगाह में, न खबर नियत की राह,
जो लमहों में नहीं ठहरा, वो सिला हयातसे परे है।
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कारगर इज़्ज़त, ना ज़िल्लत, ना ‘मक़्बूल’ की प्यास,
मुतमइन जो है, उसका हर फ़ैसला नियतसे परे है।
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शबनम ना ख़्वाजा है, ना बंदा, ना आरज़ू का सानी,
हर्फ़-ए-हक़ीक़त में है गुम, तमन्ना दुआहसे परे है।
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तलाश-ए-वफा में जो दरेदिवार से भी रू-ब-रू हो,
वो इश्क़-ए-बे-नाम का दरिया, वफ़ा वसीले परे है।
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नुमायॉं शीरी दर सवाल में है, ख़ामोशी का जवाब,
दास्तॉं लफ़्ज़ों से नहीं गिला, सदा इब्तदासे परे है।
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दम ए यार कहे कौन जाने फ़ना की ताबिरसे परे है,
ऐहसां ख़ालिक़-ए-रूह में है, बंदा इंतेजामसे परे है।
Though engaging outwardly in worship and society, the enlightened one does not truly experience joy or sorrow. These appear to him like reflections – unreal and distant.
Jugal Kishore Sharma Bikaner
Saturday, 17 May 2025