कितने ही स्वर उठते हैं अन्दर से
मानो हिमालय के स्वच्छ शिखर हों,
या बहती नदियों का पवित्र जल हो
या खिलते खिलखिलाते पुष्पों की पहल हो।
या बहकी हवा के झोंके हों
या अनकही कोई आरती हो
या टहलती व्यथा के प्राण हों
या महकती धरा की आवाज हो।
बचपन की कोई सहज विधा हो
यौवन का प्यारा संगी हो,
जीवन का महकता स्मरण हो
या चिट्ठियों की अद्भुत गड्डी हो।
* महेश रौतेला