# मैंने भी जलाई होली.
सोचा इस बार ,

मैं भी जलाऊँ होली

मैंने झांका हृदय में अपने,,

देखा एक बड़ा सा,

स्तम्भ था अहं का,

उसे घसीट कर लाई,

और गाड़ दिया,

बीच में,

फिर गई, देखा,

कुछ ईर्ष्या,द्वैष के

‘उपले’ पड़े हैं,

ले आई उन्हें ढोकर,

और अहं के लकड़ॆ के,

आसपास जमा दिया।

फिर टटोला मन को,

लालच के मीठे-मीठे बताशे,

बिखरे हुए थे इधर-उधर ,

उन्हें किया एकत्र और

बना ली उनकी माला

उसे भी लगा दिया,

होली के डंडे पर ।

एक डिबिया मिली ,

जिसमें रखी थीं ,

कई तीलियाँ क्रोध की ,

उन्हें ले आई और ,

रगड़ कर उन्हें

कर दी प्रज्जवलित

अग्नि

धूँ-धूँ धूँ..धूँ

जलने लगी होली ।

मन में छुपी कुछ धारणाओं के

नारियल को भी किया

समर्पित ।

भावनाओं के शीतल जल

से परिक्रमा कर,

देखती रही,

उठती चिनगारियों को।

अपने विकारों की अग्नि में,

जल कर भी जब

प्रह्लाद की भाँति

सत्य का नारियल

बाहर निकल आया तो,

खेलने का मन हुआ होली।

अब लोगों के सब तरह के

रंग देखकर भी,

मन चहकता रहता है।

लोगों की तीखी और पैनी

पिचकारियाँ झेलकर भी मन

गुदगुदाता रहता है।

अब होली बन गई है

एक उत्सव

मन का भी।

© मंजु महिमा भटनागर

Hindi Poem by Manju Mahima : 111792818
मधु सोसि गुप्ता 2 year ago

हॉ प्रमिला आपके और हमारे विचारों में बड़ी समानता है

shekhar kharadi Idriya 2 year ago

बिल्कुल सार्थक चित्रण तथा गहरा भावार्थ प्रस्तुति करती हुई अद्भुत रचना, पढ़कर हृदय तृप्त हो गया इतनी प्रभावशाली तथा सकारात्मक, नकारात्मक ऊर्जा का भेद स्पष्ट करती हुई । इसलिए अनगिनत हृदय तल से आभार 💐🙏

Pramila Kaushik 2 year ago

मधु सोसी दी आपने बिल्कुल सही कहा। मंजु महिमा दी की कविता पढ़ते वक्त मेरे मन भी यही भाव आया था जिसे आपने अपनी प्रतिक्रिया में व्यक्त कर दिया। 🙏 मंजु दी हम सभी आपकी कविता पर अमल करें तो जीवन इस धरती पर ही स्वर्ग बन जाए। प्रेरक कविता के लिए आपको हार्दिक साधुवाद 🙏🌺🌺🙏

मधु सोसि गुप्ता 2 year ago

इससे बढ़िया होली पर रचना मैंने आजतक नहीं पढ़ी मंजु महिमा की कृतियाँ सदैव मौलिकता से पल्लवित होती हैं वे शायद दिखाई कम देतीं हैं परंतु जो दुर्लभ होते हैं उनके दीदार भी कम होते है । मधु सोसि अहमदाबाद

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