में रोज़ लिखती हूँ तुम्हे थोड़ा सा
मेरी हर नज्म़ मे, हर शायरी में
पर तुम्हारा ज़िक्र अब नहीं करती
में रोज़ लिखती थी तुम्हें थोड़ा सा
पर तुमने कभी भी उसे ना
पढ़ ना चाहा ना हि कभी समझना
में रोज़ लिखती हूँ तुम्हें थोड़ा सा
कभी मेरी मुस्कान मे, कभी मेरे आँसु मे
में रोज़ लिखती थी तुम्हें थोड़ा सा
कभी ख़ुशी मे, कभी उसके पीछे छुपे गम मे
में रोज़ लिखती हूँ तुम्हें थोड़ा सा
पर तुमसे महौब्बत हे वो अब बायां नहीं करती
में आज भी लिखती हूँ तुम्हें थोड़ा सा ''Maya''
पर तुम्हें तभी कोई फर्क नहीं पड़ता था
और ना हि अभी कोई फर्क पड़ता है।
-Shraddha''Maya''