एक कठपुतली सा ...
दिन ढलने पर
जब स्याह रात
ले लेती है
अपने आगोश में
सारे उजाले को
तब आंखें बंद कर
मैं देखता हूं साफ़ साफ़
दिन भर के
सारे बीते पलों में
खुद ही को
दूर से , ऊपर से
मिलते हुए
बातें करते हुए
लड़ते हुए
प्यार करते हुए
छुपते हुए
खोते हुए
रोते हुए
हंसते हुए
कितनी ही बार
मैं खुद ही को
नहीं पहचान पाता हूं
कोई अजनबी सा
मालूम होता है
मुझे नीचे खड़ा
मेरा वो 'हमशक्ल'
कितनी ही बार
मैं अचंभित होता हूं
खुद ही के रवैये से
और नहीं समझ पाता मैं
खुद के ही इरादे
कितनी ही बार
मुझे एक नाटक सा
लगता है सब कुछ
और अपना किरदार
लगता है रटते हुए
अपने रोल के
'लिखे' डायलॉग सारे
कितनी ही बार
मैं सोचता हूं कि
बदल दूंगा
वह सब कुछ
सारा अपरिचित सा
अंदाज़, मिजाज़ अपना
पर आंखें खुलते ही
मैं खो देता हूं
वो आसमानी नज़र सारी
जो साफ़ साफ़ सब
देख लेती
पढ़ लेती
पहचान लेती
मेरा सारा खोखलापन
और
मैं एक गुलाम सा
अदृश्य सी
किसी डोर से बंधे
बेबस सा
एक कठपुतली सा
नाचने लगता हूं ...