जानते हो,
वो जो तुम्हारे पीताम्बर से,
हर पल मेरे भीतर,
बसंत झरता रहता है,
वो थोड़ा सा बाहर बिखर गया है।
पीली सरसों फूल गयी है
आम्रवृक्ष बौरा गये हैं
भ्रमरगुँजन कर रहे हैं
कोकिला कुहुक रही है
मुरझाए सूर्यदेव भी चमक उठे हैं।
अभी रति ने पूछा,
ये थोड़ा सा छलका हुआ वसंत है,
तो सृष्टि इतनी मदमस्त है
जहां बसंत हर पल झरता है
वहां कैसा लगता है?
बताओ, रति को क्या उत्तर दूं?
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