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मेरा पहला प्रेम पत्र... बरसों बाद किताबों में दबा एक मुड़ा-तुड़ा एक कागज़ का टुकड़ा मिला .. खोल कर देखा याद आया , ये तो वही ख़त है जो मैंने लिखा था उसको... हाँ ये मेरा लिखा हुआ था प्यार भरा ख़त .. या कहिये मेरा पहला प्रेम-पत्र , जो मैंने उसे कभी दिया ही नहीं ... लिखा तो बहुत था उसमें जो कभी उसे कह ना पायी ... लिखा था क्यूँ उसकी बातें मुझे सुननी अच्छी लगती है और उसकी बातों के जवाब में क्यूँ जुबां कुछ कह नहीं पाती .. और ये भी लिखा था क्यूँ मुझे उसकी आँखों में अपनी छवि देखनी अच्छी लगती है .. लेकिन नजर मिलने पर क्यूँ पलकें झुक जाती है ... आगे यह भी लिखा था क्यूँ मैं उसके आने का पल-पल इंतज़ार करती हूँ.. और उसके आ जाने पर क्यूँ मेरे कदम ही नहीं उठते ... रात को जाग कर लिखा ये प्रेम-पत्र , रात को ही ना जाने कितनी बार पढ़ा था मैंने ... न जाने कितने ख्वाब सजाये थे मैंने , वो ये सोचेगा , या मेरे ख़त के जवाब में क्या जवाब देगा ....! सोचा था सूरज की पहली किरण मेरा ये पत्र ले कर जाएगी .. लेकिन उस दिन सूरज की किरण सुनहली नहीं रक्त-रंजित थी ...! मेरे ख़त से पहले ही उसका ख़त मेरे सामने था ... लिखा था उसमें, उसने सरहद पर मौत को गले लगा लिया ... और मेरा पहला प्रेम-पत्र मेरी मुट्ठी में ही दबा रह गया बन कर एक मुड़ा-तुड़ा कागज़ का टुकड़ा...
इतवार भी शनिच्चर हो सकता है बहुत बढ़िया | इतने झंझावत में सपने भी देखे जा सकते है ! :) https://matrubharti.com/book/11505/
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